रविवार, 25 नवंबर 2012

संसार की फ़ितरत....

साहिल पर अक्सर कुछ इस तरह के लोग मिल ही जाते हैं|
जिनका सिर्फ़ काम ही लोगों की कस्तियों को डुबाना होता है|
ना जाने क्यूँ जी जल सा जाता है सोचकर ही ये सब|
जानता हूँ ये सब तो चलता ही रहेगा|
कुछ भी नहीं बदलेगा और अगर बदलेगा भी तो,
सिर्फ़ मांझीऔर साहिल इसके सिवा कुछ भी नहीं|
अक्सर मंज़िल के करीब पहुच कर भी दूर रह जाते हैं|
ना तो फ़ासले ही मिटते हैं, और न ही कुर्वत|

......................................५ अप्रैल, २००५

रविवार, 29 अगस्त 2010

हर बार...




ना जाने क्यूँ हिरासाँ सा लग रहा था वो...
हर बार अपने हिल्म को छुपा रहा था वो
जानता था दूर जाना है उसको...
इसीलिए सब कुछ सहे जा रहा था वो...

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

झिझक...


झिझक अब अपनी मिटाने की कसम खाता हूँ|
कैसे
भी कर के ये उनको बताने की कसम खाता हूँ|
रह
जाता हूँ हर-बार उलझ कर उलझनों में जिनकी|
ना
जाने कैसी ये उनको बताने कसम खाता हूँ|
झिझक
अब अपनी मिटाने की कसम खाता हूँ|

ना जाने क्यूँ....




ना जाने क्यूँ उलझी हैं कुछ बातें जहन में मेरे
ना जाने क्यूँ अटकी हैं कुछ साँसे सीने में मेरे

रह
-रह कर चुभती हैं वो बातें जहन मेरे

कुछ तो अब भी बाकी है इसीलिए शायद
अब भी अटकी हैं कुछ साँसे सीने में मेरे

पल-पल हर पल ये सोचा करता हूँ

क्यूँ ये बातें उलझी हैं जहन में मेरे
क्यूँ ये अटकी है साँसे सीने में मेरे